●●●राजीव खण्डेलवाल●●
(लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं) बेशक, भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। नरेंद्र मोदी के दुबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद से लगातार पिछले कुछ समय से भारतीय राजनीति में जो घटनाएं घटित हो रही हैं, उनसे लगता है कि अगले कुछ समय में ही भारत विश्व का सबसे बड़ा एकमात्र ऐसा लोकतांत्रिक देश बन जायेगा, जहां सिर्फ एक पार्टी (सत्ताधारी) का ही अस्तित्व होगा। इसके बावजूद भी वह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाता रहेगा। जहाँ दूसरे देशों में इस स्थिति को (राजशाही) मोनोआर्की कहां जाता है। विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश के संविधान में यह नहीं लिखा है कि लोकतंत्र के लिए दो राजनीतिक पार्टियों के होने की आवश्यकता है। लेकिन व्यवहारिक रूप से प्रभावी लोकतंत्र की सफलता के लिए सामान्यतः कम से कम दो राजनीतिक पार्टियां के अस्तित्व की अपेक्षा अवश्य की जाती है। एक सत्ताधारी और दूसरी उस पर अंकुश रखने वाला विपक्ष। यद्यपि कानून में ऐसा कोई सीमा का प्रावधान/प्रतिबंध नहीं है। वर्ष 1947 के पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत में भी गुजरते समय के साथ-साथ लोकतंत्र परिपक्व होता गया। वर्ष 1952 के प्रथम आम चुनाव में भारी बहुमत प्राप्त करने वाले सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस की तुलना में बहुत अल्प (नगण्य) संख्या में विपक्ष रहने के बावजूद एक प्रभावी विपक्ष की उपस्थिति और भूमिका हमेशा रहती आयी है। क्योंकि तत्समय कई प्रबुद्ध और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिए हुए प्रसिद्ध राजनैतिक नेता संसद में मौजूद रहकर विपक्ष से प्रभावी रूप में उपस्थिति दर्ज कराते थे।
इसलिए भाजपा को यह सोचना चाहिए कि जनता जब उन्हें लगातार जनादेश दे रही है व
आगे भी तैयार दिखती है, तब वह समय का इंतजार कर वह जनता से सीधा जनादेश लेकर अपना एकछत्र राज स्थापित करके नरेंद्र मोदी की उस कल्पना को क्यों नहीं चरितार्थ एवं साकार करती है जिसमें नरेंद्र मोदी यह कहते हुये नहीं थकते रहे कि देश की राजनीति एक दिन कांग्रेस विहीन हो जाएगी। सत्ता के शीघ्र विरोध शिखर पर पहुंच जाने के चक्कर में सिद्धांतों की बली देकर खासकर उस समय जब जनता को आज की परिस्थितियों में किसी अन्य पार्टी से कोई उम्मीद ना बची हो, क्या भाजपा भी उसी रास्ते की ओर नहीं जा रही है जिस रास्ते को कांग्रेस द्वारा लम्बे समय तक अपनाये जाने कारण जनता उसे लगभग पूर्णतया खारिज कर चुकी है?सिंद्धातों व नैतिकता को कमजोर करने जाने का कतई कोई औचित्य/समझ नहीं पड़ता है।