अदार पूनावाला , कृष्णा एला, (सीरम एवं भारत बायोटेक) एवं एक मुनाफाखोर में कोई अंतर रह गया है क्या ? ■■राजीव खंडेलवाल■■■
(लेखक कर सलाहकार एवं पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)

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विगत दिवस वैक्सीन की “त्रिस्तरीय कीमत” के “तथाकथित औचित्य” को लेकर लेख लिखा था। देश के कई भागों से भी इन बढ़ी हुई कीमतों का विरोध हुआ था। तथापि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने वैक्सीन की कीमत के संबंध में राज्य सरकारों को यह अनचाही सलाह जरूर दे डाली कि, वे वैक्सीन की कीमत के संबंध में अपने स्तर पर कंपनी से सीधे बातचीत कर (नेगोशिएट) कीमत तय करें। आगे उन्होंने यह भी कहा कि केंद्रीय सरकार का कोई सीधा संबंध इन कीमतों के निर्धारण (या पुनर्निर्धारण) से नहीं है। कल (शायद राज्य सरकारों के द्वारा (नेगोशिएट किए बिना ही) सीरम इंस्टीट्यूट कंपनी ने अपनी वैक्सीन “कोवोशील्ड” की कीमत राज्य सरकारों के लिए ₹400 से घटाकर ₹300 कर दी है । आज भारत बायोटेक लिमिटेड ने भी राज्य सरकार के लिए वैक्सीन की कीमत 600 से घटाकर ₹400 कर दी है। यद्यपि केंद्रीय सरकार को पूर्वत” डेड ₹150 की दर से ही वैक्सीन दी जाएगी (जिसमें “मुनाफा” भी शामिल है जैसा कि सीरम कंपनी के अधिकारियों ने स्वीकार भी किया।) परंतु कब तक?
इसके लिए सीरम कंपनी के सीईओ अदार पूनावाला एवं भारत बायोटेक के संस्थापक कृष्णा इला बधाई ? के पात्र हैं । बधाई में “प्रश्नवाचक चिन्ह” इसलिए कि जब 200 रुपए मूल्य को 2 गुना और 3 गुना बढ़ाकर ₹400 और ₹600 तथा 600 एवं 1200 रुपए कीमत तय की गई तब, सीरम इंस्टीट्यूट व भारत बायोटेक कंपनी या केंद्रीय सरकार की तरफ से 2 गुना 3 गुना कीमत बढ़ाए जाने पर कोई स्पष्टीकरण अभी तक नहीं आया कि डेढ़ सो रुपए की कीमत पर केंद्रीय सरकार को दी जाने वाली वैक्सीन की पूर्व में निर्धारित की गई कीमत ₹400 एवं ₹600 कैसे “उचित” ठहराई जा सकती है? भारत में विश्व के अनेक देशों को दी जाने वाली कीमतों की तुलना में यह सबसे ज्यादा है । उदाहरणार्थ सऊदी अरब दक्षिण अफ्रीका में ₹393 अमेरिका बांग्लादेश में ₹299 ब्राजील में रु 236 ब्रिटेन में रु 224 यूरोपीयन यूनियन में रु 161 से 262 में कोविशील्ड वैक्सीन मिलेगी । सरकार ने दोनों कंपनियों को लगभग क्रमश: 3000 व 1586 करोड़ की आर्थिक राशि (ऋण ,सहायता या अनुदान ? प्रदान की है। साथ ही 100% अग्रिम राशि रुपए 3000 और 1500 करोड़ वैक्सीन के क्रय करने हेतु भी दी है। क्या केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक सहायता दिए जाने के कारण कंपनी केंद्र को डेढ़ सौ रुपए में वैक्सीन उपलब्ध करा रही है ? यदि ऐसा है तो फिर पूर्व स्थिति का अनुसरण करते हुए केंद्रीय सरकार कंपनियों से पूरी वैक्सीन की खरीदी कर राज्य सरकारों को क्यों नहीं वितरित करती ? आखिर-कार वैक्सीनेशन एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है। जब आज राज्य सरकारें ₹400 कीमत देने को तैयार हो गई थी तो, निश्चित रूप से वे ₹150 की राशि केंद्र सरकार को अवश्य देती जो वैक्सीन पूर्व में केंद्र सरकार ने उन्हें मुफ्त में दी थी।
कीमतों का यह “खेल” ठीक उसी प्रकार से हुआ है, जिस प्रकार सरकार (तकनीकी रूप से पेट्रोलियम कंपनियां) पेट्रोलियम उत्पाद (पेट्रोल डीजल) की कीमत ₹10 बढ़ाकर विरोध होने पर मात्र 10 पैसे कम कर वाहवाही लूटने का प्रयास करती आ रही है। एक चाय वाला एक कप चाय की कीमत ₹10 से बढ़ाने के लिए चाय की मात्रा कम कर आधी चाय ₹8 में बेचने कर शाबाशी भी प्राप्त कर लेता है। उपभोक्ताओं को कीमतों के संबंध में गुमराह करने के यही तरीके प्रचलन में है। इसलिए जब तक पूर्व में निर्धारित की गई कीमत ₹400 एवं ₹600 करने का “औचित्य” “सार्वजनिक डोमेन” (ज्ञान क्षेत्र) में नहीं आ जाता है, तब तक वास्तविक अर्थ में कीमत ₹100 या ₹200 “कम” न होकर ₹100 और ₹200 “बढ़ी” ही मानी जाएगी।
देश के नागरिकों को खासकर “करदाताओं” को यह जानने का पूरा हक है कि राज्य सरकारों द्वारा जो वैक्सीन की खरीदी सरकारी स्तर पर की जानी है, प्रथम उत्पादन के समय उसकी लागत कीमत क्या थी। यदि उसकी लागत कीमत में बढ़ोतरी हुई है तो कितनी, कब और किस कारण से? क्योंकि अंतत: इस बढ़ी हुई कीमत का पैसा करदाता के दिए गए टैक्स से ही सरकार कंपनी को भुगतान करेगी।
वैसे बाजार के अर्थशास्त्र का सामान्य सा सिद्धांत यही है कि जब किसी उत्पादक कंपनी द्वारा कोई वस्तु पहली बार बाजार में उतारी जाती है, तो उसका “उपभोग व विक्रय” प्रारंभिक अवस्था में “कम” होने के कारण उसकी प्रारंभिक कीमतें सामान्यतया ज्यादा होती है। धीरे धीरे उत्पादन बढ़ने से और बाजार में माल की खपत बढ़ने से उसकी कीमतों में तदनुसार कमी आ जाती है। व्यवहार में हमारा यही अनुभव रहा है। कीमतों के संबंध में निजी अस्पतालों को दी जाने वाली वैक्सीन की कीमत पूर्व अनुसार ₹600 और रुपए 1200 रहेगी। इस स्पष्टीकरण विहीन, औचित्य हीन “उच्च कीमत’ पर सरकार द्वारा कोई नियंत्रण न करना आश्चर्यजनक है । खासकर उस हालात में जब सरकार ने निजी अस्पतालों में कोविड-19 से संबंधित इलाजो की दरें एक तरफा रूप से निश्चित कर उसे प्रदर्शित करने के निर्देश दिए हैं । हालांकि धरातल पर कितना पालन हो रहा है, यह अलग जांच का विषय है । वैसे निश्चित रूप से अदार पूनावाला को इस बात की जरूर बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने स्वदेश मे ही इस वैक्सीन का करोड़ों की संख्या में भारत बायोटेक की तुलना में आधी कीमत पर उत्पादन कर देश की एक बड़ी जनसंख्या को राहत पहुंचाने का (आर्थिक लाभ सहित) मानवीय पुनीत कार्य अवश्य किया है। इस कार्य के लिए उन्हें आगामी गणतंत्र दिवस पर “पद्मश्री” से सम्मानित अवश्य किया जाना चाहिए। ठीक इसी प्रकार जैसा कि अभी उन्हें “व्हाई श्रेणी” की सुरक्षा चक्र मुहैया कराई गयी है ।100% #स्वदेशी# वैक्सीन होने के कारण कृष्णा एला को भी सम्मानित किया जाना चाहिए।
दवाइयों की कीमतें तय करने के संबंध में सरकार का “दोहरा चरित्र” भी सामने आया है। रेमडेसिविर इंजेक्शन की कीमत का उदाहरण आपके सामने है। सरकार के हस्तक्षेप के बाद कंपनियों ने रेमडेसिविर इंजेक्शन की कीमत 50 से 60% तक कम कर दी है। इस प्रकार कीमतों में लगभग 1000 से ₹2000 से ज्यादा तक की कमी आई है। परंतु वैक्सीन की कीमत तय करने के मामले में सरकार का रवैया आश्चर्यजनक रूप से बिल्कुल विपरीत रहा है। कारण और स्पष्टीकरण सरकार के पास ही है, करदाता जनता को मालूम नहीं ।
बात अब मुनाफाखोरी व ब्लैक मार्केटिंग की कर ले।रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी सिनेमा की टिकटों की समान करके मुनाफाखोरी करने वाला एक ब्लैक मार्केटर और सीरम इंस्टीट्यूट व भारत बायोटेक की मुनाफाखोरी में आखिर अंतर क्या रह गया है? वैसे अंतर को जानने के पहले आपको यह जानना जरूरी है कि दोनों में एक “समानता” जरूर है, वह यह कि दोनों कोविड-19 संक्रमित व्यक्तियों की जीवन की रक्षा दवाई की पूर्ति करके कर रहे हैं। भले ही इस कार्य के लिए वे अपनी “क्षमता” व “सामर्थ्य” अनुसार मुनाफाखोरी कर रहे हो? वैसे भी एक कालाबाजारी करने वाला व्यक्ति 18,000 का रेडीसीमेल इंजेक्शन खरीद कर 20000 में बेचकर मुनाफाखोर कहलाता है । और “एनएसए” से लेकर भारतीय दंड संहिता व अन्य कानूनों की विभिन्न धाराएं उसका स्वागत करने के लिए दोनों हाथ में माला लेकर तत्पर है? जबकि 2000 के इंजेक्शन को ब्लैक मार्केटर को 18000 में बेचने वाला व्यक्ति कानून के “लंबे हाथ” होने के बावजूद “पकड़ से बाहर” है। वैसे भी कालाबाजारी व मुनाफाखोरी में अंतर रह ही क्या गया है। कालाबाजारी रात के अंधेरे में या दिन के उजाले में छुपते हुए सामान्य से अत्याधिक मुनाफा कमाते हुए माल बेचना ही तो होता है। जबकि कंपनी द्वारा मुनाफाखोरी के लिए उसके पास विक्रय करने का बाकायदा “लाइसेंस” होता है जब तक कि सरकार कानून के अंतर्गत उस मॉल का अधिकतम विक्रय मूल्य निर्धारित न कर दे। सफेदपोश मुनाफाखोर होने के बावजूद “कानून” उनके सामने हाथ जोड़कर कमर झुकाकर उनके पैरों तले रूद्रता हुआ दिखता है।
इस सफेदपोश मुनाफाखोरी में सरकारों का कितना सहयोग है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। “सबसे पहले”, “सबसे तेज” (आज तक न्यूज़ चैनल के समान) मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की आदत में शुमार उक्त शैली के चलते सीरम इंस्टीट्यूट को सबसे पहले 60 लाख वैक्सीन का ऑर्डर देकर सुर्खियां बटोरी। किसी ने भी यह पूछने की जुर्रत तक नहीं की कि, सरकार ने खरीदी आदेश देने के पहले कंपनी से कीमत के बाबत कोई नेगोशिएट किया था, जैसा कि भाजपा राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा ने भी कहा था। न ही इस संबंध में सरकार का कोई कथन आया। केंद्रीय व राज्य सरकारों की पारदर्शिता से कार्य करने के दावे को इस “वैक्सीन कीमत निर्धारण नीति” ने तार-तार कर दिया है। उच्चतम न्यायालय ने भी आसमान छूती इस असमान कीमतों के संबंध में नोटिस जारी किया है । अभी-अभी उच्चतम न्यायालय ने वैक्सीन के मूल्य निर्धारण के संबंध में समस्त सूत्र अपने हाथ में लेने को कहा है।
वैसे सरकार इस समय “डीमिंग प्रोविजन एवं प्रिज्यूमटिव” (अनुमान) सिद्धांत के आधार पर काम करते हुए लग रही है । ठीक उसी प्रकार जैसा कि कराधान (आयकर) प्रणाली में सरकार ने डीमिंग प्रोविजन एवं प्रिज्यूमटिव टैक्सेशन (करारोपण) का क्षेत्र बढ़ाया है। मतलब कुल विक्रय का एक निश्चित परसेंटेज 6 या 8 “प्रिज्यूमटिव लाभ” माना जाकर तदनुसार टैक्सेशन किया जाता है। फिर चाहे आपको उससे ज्यादा लाभ हुआ हो अथवा हानि। यही सिद्धांत कीमतों के औचित्य के मामले में शायद सरकार अपना रही है। मतलब आप यह मान (स्वीकार कर) लीजिए कि कंपनियों ने वैक्सीन की जो भी कीमतें तय की है वह “रीजनेबल (उचित) है। “अनुमान की स्वीकारति का यह सिद्धांत” ही अपने आप मे सरकार का स्पष्टीकरण है। तब सरकार इस प्रिज्यूमटिव सिद्धांत को आगे और क्यों नहीं बढ़ाती है, खासकर आम चुनावों में। जब सरकार यह मानती है उसने जनहित में बहुत काम किए हैं तब उसे प्रचार के लिए जनता के बीच जाने की कदापि आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । क्योंकि इस प्रिज्यूमशन के सिद्धांत के आधार पर जनता भी उनके द्वारा किया गया कार्यों के आधार पर वोट करेगी। यदि “प्रिज्यूमशन” की यह थ्योरी कम से कम समस्त सत्ताधारी राजनीतिक दल अपना ले तो बहुत सी समस्याएं जिनकी की जड में चुनावी राजनीति है, के न रहने पर समस्याएं काफी हद तक सुलझ जाएंगी।

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