पंजाब कांग्रेस में चल रही घमासान अंर्तकलह (जिसके लिये कतिपय क्षेत्रों में सिद्धू को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है) के बीच देश के पूर्व ओपनर क्रिकेटर, पूर्व सांसद तथा पंजाब सरकार के पूर्व मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू के पंजाब में उत्पन्न हुए राजनैतिक संकट को सुलझाने के लिए कांग्रेस हाईकमान द्वारा गठित कमेटी से चर्चा की। चर्चा उपरांत पत्रकारों से चर्चा करते हुये उक्त बात बात कही कि सत्य प्रताड़ित हो सकता है, पराजित नहीं। सर्वप्रथम तो जिस संदर्भ (राजनीति) में सिद्धू ने यह बात कही, राजनीति में ‘‘सत्य‘‘ की बात करना ही “दलदल में पैर फसाना” है इस प्रकार ‘‘बेमानी होकर हंसी मजाक का पात्र बनना‘‘ मात्र है। इसलिए उनका यह कथन अपने आप में ही ‘‘असत्य‘‘ है। क्योंकि “असत्य के अपने पांव नहीं होते”। (“ए लाई आई हैज नो लेग्ज”) वास्तव में वर्तमान में ‘‘सत्य‘‘ की इस तरह से व्याख़्या करना ही गलत है। क्योंकि सत्य तो ‘‘सत्य‘‘ है, ‘‘अटल‘‘ है। ( यद्यपि ‘‘अटल (जी)‘‘ पूर्णतः सत्य नहीं रहें।) सत्य न तो कभी ‘‘प्रताड़ित‘‘ होता है, न ‘‘पराजित‘‘ होता है, न परेेशान होता है और न ही ‘‘विजयी‘‘ होता है। ये सब “अस्थायी” भाव होते है। ‘‘सत्य तो सिर्फ सत्य ही होता है‘‘। उसे किसी ‘‘परीक्षा‘‘ में “पास” होने की आवश्यकता नहीं है। यह हमारी आचरण और भावना है, जो हमे अपने जीवन जीने की दिशा को निर्देशित करती है व उस ओर ले जाती है, यही परम सत्य है। हमारे शास्त्रों में “सत्य को धर्म का मार्ग” बताया गया (“सत्यं वद् धर्मम् चर स्वाध्यायान्मा प्रमद:”) ।”सत्य का सामना करना ही सत्य है‘‘। ‘‘सत्य असत्य नहीं हो सकता है‘‘, ‘‘असत्य सत्य नहीं हो सकता है‘‘। वर्तमान कलयुग में सत्य को पहचानना, पालन करना व निभाना दु:साध्य है, कठिन है। लेकिन इस काटों भरे दुर्गम रास्ते के बावजूद सत्य हमेशा ‘‘अड़िग‘‘ रहता है। अतः “सत्य” का कोई “विकल्प” नहीं हो सकता है। अर्थात इसे किसी भी अन्य “कर्म”, “सूत्र”, “सिद्धांत” द्वारा किसी भी स्थिति में “प्रतिस्थापित” नहीं किया जा सकता है।
सत्य का अर्थ ‘‘सते हितम‘‘ अर्थात हम सब का कल्याण करना होता है। निश्छलता, वाणी का संयम और भाषा का विवेक ही सत्य के भाव होते हैं। ‘‘सत्यं धर्मस्तपो योगः‘‘। अर्थात सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है और सत्य ही योग है। ‘‘सत्यं सत्येन दृश्यते ‘‘ अर्थात ‘‘सत्य का दर्शन सत्य‘‘ से ही होता है।‘‘सत्य‘‘ कटु होता है, ‘‘कड़वा‘‘ होता है। सत्य की पहचान करना भी आसान नहीं है। सत्य को ‘‘सत्यापित‘ अर्थात शपथ लेने की आवश्यकता नहीं होती है। “ईमानदारी” का सत्य से सीधा संबंध होता है। इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि ‘‘सत्य‘‘ क्या है। प्रश्न यह है कि ‘‘सत्य‘‘ पर हम अपने संपूर्ण शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति के साथ ‘‘कितना‘‘ चल सकते है। क्योंकि अंततः ‘‘सत्य के मार्ग पर चलने से ही आत्म संतुष्टि व ‘‘मोक्ष‘‘ प्राप्त होता है‘‘। चूकि ‘‘सत्य से भगवान को पाया जा सकता है‘‘, इसलिए सत्य का पालन कठिन जरूर है, लेकिन असंभव नहीं। जिस प्रकार महाराजा ‘‘कर्ण‘‘ को अभी तक का सबसे बड़ा दानी माना गया है, महाभारत की “विदूर नीति” को तटस्थ सत्य मानी गई, उसी तरह अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र अभी तक के सबसे बड़े ‘‘सत्यवादी‘‘ सत्य बोलने वाले व्यक्ति रहे है। राजा हरिश्चंद्र के बाबत एक बड़ी उक्ति प्रसिद्ध है। ‘‘चंद्र टरे, सूरज टरे, टरे जगत व्यवहार, पै दृढ़ हरिश्चंद्र को टरे न सत्य विचार‘‘।
बात नवजोत सिंह सिद्धू के ‘‘सत्य‘‘ की हो रही थी। वैसे यदि सिद्धू के राजनीति में आने के बाद विभिन्न अवसरों पर दिए गए “हथेली पर सरसों जमाने वाले” और “आकाश पर दिया जलाने वाले” राजनैतिक बयानों में से “सत्य” खोजने के लिए उन्हें कहा जाए तो, दूसरों को अपनी हाजिर जवाबी से हंसाने वाले सिद्धू यहां पर स्वयं ही “मूर्छित” होकर गिर जाएंगे। खैर! नवजोत सिहं सिद्धू देश के बड़े ओपनर क्रिकेटर रहे है। उनसे पूछा जाना चाहिये कि जब वे देश के लिए क्रिकेट की पिच पर खेलने के लिए उतरते थे, तब वे देश हित की भावना लिए हमेशा शतक या जरूरत अनुसार अच्छे रन बनाने की भावना व नियत से उतरते थे। परंतु कितने बार उनके “चेहरे पर वसंत फूलते हुए” दिखाई दिया, अर्थात भावना के अनुरूप रन या शतक बना पाए? क्या वे हमेशा सफल रहे? क्योंकि उनकी सोच तो सत्य व सही थी और क्षमतानुसार शारीरिक व मानसिक ताकत का उपयोग भी किया जाता था। बावजूद इसके कई बार वे असफल रहे। अतः उनका यह कथन ‘‘सत्य प्रताड़ित हो सकता है लेकिन पराजित नहीं स्वयं ही गलत सिद्ध होता है‘‘। यद्यपि आधा गिलास खाली है और आधा गिलास भरा है के सिद्धांत के आधार पर सिद्धू यह दावा जरूर कर सकते है कि कई बार असफल होने के बाद जब उन्होंने शतक बनाया और टारगेट को पूरा किया तो यह वही कथन हुआ की कई बार असफल (प्रताड़ित) होने के बाद अंततः सफलता मिली। परन्तु कम से कम आज की वर्तमान राजनीति में कोई सत्य की बात करते हुये दिखना भी नहीं चाहता है। इसलिए नवजोत सिंह सिंद्धू ने “सहारा में नखलिस्तान के समान” इस ‘‘असत्य राजनीति से भरे-पूरे मैदान में‘‘ सत्य की बात करने का जो दुस्साहस किया है, जिसके लिए निश्चित रूप से वे बधाई के पात्र हैं। शर्त यह है कि वे वर्तमान में पंजाब कांग्रेस में उत्पन्न राजनैतिक उथल-पुथल में स्वयं सत्य का मार्ग अपनाते हुए स्वयं के रचे इस चक्रव्यूह से बाहर निकले।
