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भारतीय लोकतंत्र की ‘खूबसूरती’ उसका “त्रिस्तरीय” होना है। अर्थात् हमारा लोकतंत्र संसद (लोकसभा एवं राज्यसभा), विधानसभा (एवं विधान परिषद) और स्थानीय स्वशासन संस्थाएं (मतलब नगर निगम नगरपालिकाऐ पंचायतें) के गठन से बनकर सफलता पूर्वक कार्य करने पर ही पूर्ण व सफल माना जाता है। क्योंकि तभी “अंतिम छोर” (पंडित दीनदयाल उपाध्याय की सोच) पर खड़ा नागरिक भी लोकतंत्र की “महक” को महसूस कर सकता है । भारतीय लोकतंत्र की इस “विशिष्टता” को बनाएं रखने के साथ इस भावना के अनुरूप ही सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक कंपनी जो उक्त वैक्सीन का निर्माण कर रही है, ने वैक्सीन की कीमत भी “त्रिस्तरीय” कर दी है। अर्थात केंद्रीय सरकार को पूर्ववत ₹150, राज्य सरकारों को ₹400 और निजी अस्पतालों व औद्योगिक संस्थाओं को ₹600 में “कोवैक्सीन” जबकि “कोविशील्ड” की कीमत क्रमशः 150 रुपए 600 और 1200 रुपए “सरकार के निर्देश” पर तय की गई है। प्रधानमंत्री द्वारा 1 मई से वैक्सीनेशन की नई योजना की घोषणा के पूर्व उक्त वैक्सीन का संपूर्ण उत्पादन (निर्यात को छोड़कर जिस पर अभी कुछ समय पूर्व ही प्रतिबंध लगा दिया गया है) केंद्रीय सरकार को ₹150 में दी जा रही थी । और केंद्रीय सरकार ही पूरे देश में राज्यों के माध्यम से सरकारी अस्पतालों को वैक्सीन का “मुफ्त वितरण” अभी तक कर रही थी। परंतु अब 1 मई से कुल उत्पादन की 50% वैक्सीन केंद्रीय सरकार को ₹150 की कीमत पर मिलेगी । जबकि शेष 50% वैक्सीन उपरोक्त अनुसार खुले बाजार में उपलब्ध होंगी। यद्यपि अभी भी 45 वर्ष से अधिक की उम्र के लोगों के लिए सरकारी अस्पतालों में केंद्रीय सरकार की ओर से मुफ्त टीकाकरण योजना चलती रहेगी। लेकिन 18 से 45 उम्र के नागरिकों के मुफ्त टीकाकरण से केंद्रीय सरकार ने अपने हाथ पीछे खींच कर राज्य सरकारों के “सुविवेक” व “संसाधनों” (?)पर छोड़ दिया है।
वैक्सीन निर्माता कंपनी द्वय ने भारत सरकार के टीकाकरण अभियान का तीसरा चरण के प्रारंभ होने के बाद ताल से ताल मिला कर वैक्सीन की “त्रिस्तरीय कीमत” लागू की है। यह त्रिस्तरीय कीमत तय करने की छूट उस पार्टी की सरकार ने दी है , जो एक देश (अखंड भारत) एक दर (जीएसटी) , एक निशान (झंडा), एक संविधान, एक नागरिकता, एक संस्कृति “हिंदुत्व” (जो धर्म नहीं जीवन कला है), एक राष्ट्रभाषा और एक राष्ट्रगान के सिद्धांतों की मजबूत “हिमायती” रही है। परंतु अब वह इस “एक” के सिद्धांत को वैक्सीन की कीमतों के मामले में लागू नहीं कर रही है, क्यों? अब भारत सरकार ने “प्रतिबंध”(?) हटा कर इन कंपनियों को “खुले आसमान में खुली सांस” लेने का अवसर 50% उत्पादन (जो उन्हें केंद्रीय सरकार को ₹150 की कीमत पर देना है) पर प्रतिबंध के साथ दिया, जिसका उक्त कंपनियों ने लोगों के “स्वास्थ्य को मजबूत” करने दृष्टि से अपने “आर्थिक स्वास्थ्य” को “मजबूत” कर भरपूर फायदा उठाने का केंद्रीय सरकार की इच्छा के अनुरूप “लोकहित” का निर्णय लिया है।भारत सरकार की देश में टीकाकरण अभियान की शुरुआत 16 जनवरी को हुई थी , जब स्वास्थ्य कर्मियों , पैरामेडिकल बल एवं फ्रंटलाइन वर्कर्स को फ्री टीका देशभर में लगाया गया था। दूसरा अभियान 1 मार्च को 60 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए मुफ्त टीकाकरण अभियान (सरकारी अस्पतालों में) प्रारंभ हुआ । तीसरा अभियान 1 अप्रैल को 45 वर्ष से अधिक उम्र के नागरिकों के लिए प्रारंभ हुआ जो भी सरकारी अस्पतालों में मुफ्त है। निजी अस्पतालों में ढाई सौ ₹ शुल्क निश्चित किया गया है। अब टीकाकरण का अगला अभियान 1 मई से प्रारंभ हो रहा है।
प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि केंद्रीय सरकार को ₹150 में दी जाने वाली वैक्सीन को 400 रुपए ₹600 व1200 रुपए तक की कीमत में बेचने वाली दोनों कंपनी कितना बड़ा मुनाफाखोरी कर रही है? वह भी केंद्रीय सरकार की “उत्प्रेरक सहमति ” से? आखिर केंद्र सरकार को अपनी वैक्सीनेशन की पुरानी नीति में परिवर्तन क्यों करना पड़ा, इसका कोई स्पष्टीकरण आम जनता के समक्ष अभी तक नहीं आया है। 18 से 45 वर्ष के उम्र के बीच की युवा शक्ति जिनमें 50% से ज्यादा लोग छात्र एवं बेरोजगार हैं, उन्हें मुफ्त टीका नहीं लगेगा बल्कि 45 वर्ष से ऊपर वालों को मुफ्त टीका लगाया जा रहा है। इसके पीछे कौन सा “वैज्ञानिक आधार” है, समझ से परे है । क्या कंपनी द्वारा सरकार को डेढ़ सौ रुपए की कीमत पर वैक्सीनेशन देने से “मना”( स्पष्ट नहीं है) करने के कारण ही सरकार को नई वैक्सीनेशन नीति की घोषणा करनी पड़ी है ? ₹150 की कीमत पर केंद्र सरकार को दी जाने वाली वैक्सीन के लिए केंद्र सरकार क्या कंपनी को “सब्सिडाइज” कर रही है? यदि हां तो कितना पैसा कंपनीज को सब्सिडी के रूप में दिया जा रहा है, इसका खुलासा क्यों नहीं किया जाता? ताकि यह स्पष्ट हो सके कि आर्थिक कारणों के कारण ही कंपनी ने वैक्सीन के मूल्य राज्य सरकारों व निजी संस्थानों के लिए बढ़ाए गए है। क्या अचानक “लागत मूल्य” अत्यधिक बढ़ गए है ? अन्यथा जनों मुखी सरकार का यह दायित्व है कि वह देश के समस्त नागरिकों का मुफ्त वैक्सीनेशन करें। इस कार्य योजना को यदि दीर्घकालीन दृष्टि से देखा जाए तो अंततः सरकार के खर्चे की बचत ही होगी । वह ऐसे कि वैक्सीनेशन होने के बाद संक्रमण की संभावना 60 से 70% कम हो जाती है। इस कारण से नागरिकों के संक्रमित होने के कारण अस्पताल में भर्ती होने से लेकर इलाज करने तक जो खर्चा स्वयं नागरिक का और सरकार का अच्छा सुदृढ़ “स्वास्थ्य तंत्र” बनाने में होता होगा , वह अंततः बच जाएगा। अतः आज “स्वास्थ्य” को भी एक मूल संवैधानिक अधिकार बनाने की नितांत संवैधानिक आवश्यकता उत्पन्न हो गई है।
वैक्सीन की कीमत के औचित्य के संबंध में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का जवाब बड़ा “तारीफ ए काबिल” रहा? “आज तक” न्यूज़ चैनल के लोकप्रिय “सीधी बात” कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला ने जब शिवराज सिंह से केंद्रीय सरकार की वैक्सीनेशन की नई नीति का उल्लेख करते हुए राज्यों को दी जाने वाली वैक्सीन की कीमत के “औचित्य” के संबंध में प्रश्न किया तो, पहले तो उन्होंने प्रश्न को दो बार अनसुना कर दिया । परंतु बार-बार प्रश्न दोहराए जाने पर उन्होंने यह जवाब दिया कि प्रधानमंत्री जी ने जो किया है वह “सही” किया है, देशहित में किया है। यह समझा जा सकता है कि उसी पार्टी के मुख्यमंत्री के लिए अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री की बात को काटना आज की राजनीति में संभव नहीं है । परंतु प्रदेश के हित में शिवराज सिंह जरूर कह सकते थे कि, राज्य का राजस्व बचाने के लिए (क्योंकि उन्होंने निशुल्क वैक्सीनेशन की घोषणा की है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए) केंद्र सरकार से या तो वैक्सीन की कीमत कम करने की मांग करते या इस मुफ्त वैक्सीनेशन अभियान में सहायता देने के लिए केंद्र से फंड की मांग करते जो प्रदेश के नागरिकों के हित के लिए आवश्यक है। यहां पर शिवराज प्रदेश के हित मे प्रधानमंत्री से उक्त मांग करने में चूक गए।अंततः इस कारण सरकार के राजस्व में होने वाली कमी की पूर्ति करने के लिए आवश्यकता होने पर प्रदेश की जनता ही अंततः कर (टैक्स) देने के लिए बाध्य होगी ।
वर्तमान में उत्पन्न एक महत्वपूर्ण संकट ऑक्सीजन की कमी की बात भी कर ली जाए । कोविड-19 से उत्पन्न भय से ज्यादा “दहशत” ऑक्सीजन की कमी के कारण उत्पन्न संकट से हुई है। केंद्रीय सरकार ने एक बहुत ही सराहनीय कदम उठाया है, जहां उन्होंने 162 ऑक्सीजन प्लांट (पीएसए) देश के विभिन्न स्थानों में लगाने की कार्य योजना लागू की है, जिसका पूरा खर्चा लगभग 200 करोड़ रुपए केंद्रीय सरकार वहन कर रही है। इसके लिए निश्चित रूप से केंद्रीय सरकार साधुवाद की पात्र है। सामान्य रूप से 40 दिन का समय इन प्लांटों को स्थापित कर प्रारंभ करने में लगता है और 10 से बीस लाख का खर्च आता है। देश में कुल 726 जिले हैं । यह माना जा सकता है कि प्रत्येक जिले में एक जिला अस्पताल है, जिसके माध्यम से वहां के नागरिक स्वास्थ्य सेवा का लाभ प्राप्त कर रहे हैं। केंद्रीय सरकार प्रत्येक जिला अस्पताल केंद्र पर एक ऑक्सीजन प्लांट लगा दे तो कुछ बड़े जिला अस्पताल केंद्रों को छोड़ कर अधिकांश अस्पतालों की ऑक्सीजन की मांग की पूर्ति इस तरीके से वहीं हो सकती है। इस प्रकार ऑक्सीजन के परिवहन में “समय से लेकर पैसा” जो खर्च हो रहा है, वह बच जाएगा । और समय पर ऑक्सीजन न पहुंच पाने के कारण असमय होने वाली दर्दनाक मौतों तो से भी बचा जा सकेगा। जब केंद्र सरकार ने 80 करोड़ लोगों को अभी 3 महीने का राशन मुफ्त में देने की घोषणा की है, जिसमें 26000 करोड़ रुपए से अधिक खर्चा आएगा। तब मात्र कुछ करोड़ रुपए “पीएम केयर फंड” से खर्च कर इस जानलेवा ऑक्सीजन की कमी के संकट को हमेशा के लिए क्यों नहीं लगभग समाप्त कर दिया जाता ? इस पर सरकार को गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है । क्योंकि जैसा कि कहा जा रहा है, निकट भविष्य में कोरोना संक्रमण कम होने के बजाय संक्रमितो की संख्या बढ़ेगी ही । इसलिए हम इन 30-40 दिनों में पूरे देश में प्रत्येक जिला अस्पताल में आवश्यकता अनुसार ऑक्सीजन के उपभोग की मांग को देखते हुए ऑक्सीजन प्लांट की स्थापना कर डॉक्टर और कोरोना संक्रमित मरीजों व परिवारों के सामने उत्पन्न हो रहे रही तबाही से तो बचा जा सके।
सरकार को बधाई! क्योंकि लेख भेजते समय केंद्रीय सरकार का प्रत्येक जिला अस्पताल में 551 ऑक्सीजन प्लांट पीएम केयर्स फंड से स्थापित करने के निर्णय की जानकारी प्राप्त हुई।
वैसे स्वयं सरकार को इस भयानक विपदा की स्थिति के संबंध में अपना आत्मवलोकन, आत्म-विश्लेषण अवश्य करना चाहिए क्योंकि इस कोरोना संकट महाकाल को स्वयं सरकार ने राष्ट्रीय आपदा काल बतलाया है और उच्चतम न्यायालय ने भी राष्ट्रीय आपातकाल जैसी स्थिति बतलाई है । तब “कुंभ” और राज्यों के विधान सभाओं के चुनाव को निरस्त, स्थगित किया जाकर खर्च हुए करोड़ों रुपए बचा कर उसे देश के स्वास्थ्य को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बनाने के लिए स्वास्थ्य ढांचे को पूरी तरह से विकसित करने मंक लगा देते, शायद तभी आप एक उत्तरदायी शासक कहलाने के हकदार होते ?
अंत में, राहुल गांधी के आज के ट्वीट पर भी चर्चा कर ले। “सिस्टम फेल है। कांग्रेस कार्यकर्ता राजनैतिक कार्य छोड़ कर सिर्फ जन सहायता करें। यही कांग्रेस परिवार का धर्म है”। राहुल गांधी। क्या राहुल गांधी कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जन सेवा का कार्य करने का निर्देश देने के लिए सिस्टम के फेल होने का इंतजार कर रहे थे? उन्होंने सिस्टम को फेल होने से रोकने के लिए “समय रहते” उक्त निर्देश क्यों नहीं दिए?