Lok Sabha Election 2019: आम चुनावों से ठीक पूर्व बने ‘राष्ट्रभक्ति’ के माहौल में सेनाओं के कई पूर्व और वर्तमान अफसर अपनी किस्मत आजमाने की तैयारी में हैं। वैसे तो सैन्य अफसरों का राजनीति में आना कोइ नई बात नहीं है, लेकिन पूर्व सेना प्रमुख वी.के. सिंह और कर्नल राज्यवर्धन सिंह राठौर की पिछले चुनाव में शानदार जीत और फिर मंत्री बनने से फौजी अफसरों में राजनीति का आकर्षण बढ़ रहा है।
सूत्रों की मानें तो सबसे ज्यादा फौजी भाजपा के संपर्क में हैं। हालांकि कांग्रेस और अन्य दलों से भी फौजियों के संपर्क साधने की खबर है। वायुसेना में सेवारत एक एयर वाइस मार्शल पूर्वी उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ना चाहते हैं। उनके कार्यकाल के कुछ महीने बचे हैं। लेकिन वह कहते हैं कि यदि टिकट मिल जाए तो पहले त्याग पत्र दे देंगे। इसी प्रकार एक अर्धसैनिक बल का नेतृत्व कर रहे अधिकारी भी ऐसी ही तैयारी में हैं।
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सूत्रों के अनुसार टीवी चैनलों की बहस में हिस्सा लेने वाले कई ‘फौजी योद्धा’ विभिन्न पार्टियों से टिकट की कतार में हैं। राजनीतिक दलों को भी उन सीटों पर फौजियों को टिकट देने में कोई बुराई नहीं दिख रही, जहां फौजियों की आबादी अच्छी है। उत्तराखंड, हिमाचल, राजस्थान, पंजाब जैसे राज्यों में फौजियों एवं पूर्व फौजियों के वोट 15 फीसदी से भी ज्यादा होने का अनुमान है। उत्तर प्रदेश और बिहार में फौजियों एवं पूर्व फौजियों से जुड़ी आबादी तीन-चार फीसदी होने का अनुमान है। इसलिए कई सीटों पर फौजियों के वोर्ट निर्णायक होते हैं।
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राजनीति में फौजी
राजनीति में फौजियों का पदार्पण नया नहीं है। देश में हुए पहले आम चुनाव में ब्रिटिश आर्मी में लेफ्टिनेंट कर्नल रहे शाहनवाज खान ने मेरठ से चुनाव लड़ा था और वह नेहरू मंत्रिमंडल में उप मंत्री बने थे। सत्तर के दशक में सेना प्रमुख जनरल के.एम. करिअप्पा ने दक्षिणी मुंबई से चुनाव लड़ा था। हालांकि वे हार गए थे। पिछले कुछ दशकों के दौरान जो तीन सफल राजनीतिज्ञ हुए हैं उनमें जसवंत सिंह, कैप्टन अमरिंदर सिंह और मेजर जनरल बीसी खंडूरी शामिल हैं। इसी कड़ी में मोदी सरकार के दो नाम- जनरल वी.के. सिंह और राज्यवर्धन सिंह राठौर के भी जुड़े हैं। इसी प्रकार पूर्व में बिहार से कैप्टन जयनारायण निषाद, ओडिशा के के.पी. सिंहदेव भी फौज से आकर राजनीति में सफल हुए हैं।
फौजियों की आबादी
तीनों सेनाओं में फौजियों की संख्या करीब 14 लाख है। करीब 24 लाख पूर्व सैनिक हैं। 15 लाख पुलिस और 10 लाख अर्धसैनिक बल हैं। वे भी फौजियों का समर्थन करते हैं। पुलिस और अर्धसैनिक बलों के सेवानिवृत्त जवानों को इसमें जोड़ें तो संख्या 25 लाख के करीब बैठती है। इनके परिजनों की संख्या मिला ली जाए तो यह करोड़ों में बैठती है। इस प्रकार कई राज्यों की सीटों पर इनका मत प्रतिशत अच्छा खासा बैठता है।
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कितने सफल
फौजी अफसर चुनाव जीते हैं। लेकिन राजनीति में भी वे अपनी छवि सेना की भांति सख्त बनाए रखते हैं। इसलिए कई नेता सफल नेता तो हुए लेकिन जनता के बीच ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाए।