●●●राजीव खण्डेलवाल●●●
(लेखक कर सलाहकार )
पश्चिम बंगाल की भाजपा युवा मोर्चा नेत्री प्रियंका शर्मा के द्वारा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की फोटो की ‘‘मीम’’ को सोशल मीडिया में शेयर करने के कारण हावड़ा पुलिस तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ता द्वारा की गई शिकायत पर प्रियंका शर्मा के विरूद्ध धारा 500 (मानहानि) और सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत आपराधिक प्रकरण दर्ज कर उन्हे गिरफ्तार किया गया। हावड़ा की स्थानीय अदालत द्वारा उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत पर भेजा गया। इसके विरूद्ध राहत पाने के लिये प्रियंका शर्मा द्वारा उच्चतम न्यायालय में उक्त कार्यवाही को चुनौती दी गई। उच्चतम न्यायालय की दो सदस्यीय वेकेशन बंेच ने प्रियंका शर्मा को तुरंत जमानत पर जेल से रिहा करने का आदेश दिया। सर्शत जमानत के पूर्व आदेश में बाद में संशोधन कर जमानत पर तुरंत छोड़ने के बाद प्रियंका शर्मा को ममता बनर्जी से लिखित माफी मांगने के निर्देश दिये गये।
निश्चित रूप से ऐसा कहा जा सकता है उच्च्तम न्यायालय के द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में यह शायद पहला अनोखा आदेश हुआ हैं, जो एक नई परिपाटी को जन्म दे सकता है। शायद, उच्चतम न्यायालय को भी इस बात का अहसास है। इसीलिये उच्चतम न्यायालय ने स्वयं यह स्पष्ट किया है कि यह निर्णय भविष्य में मिसाल नहीं माना जा सकेगा। लेकिन यदि प्रकरण में आदेशानुसार माफी मांग ली जाती है, तब फिर प्रकरण में रह ही क्या जायेगा? मतलब वह आपराधिक प्रकरण समाप्त हो जायेगा जिसके विरूद्ध प्रियंका शर्मा उच्चतम न्यायालय में राहत मांगने गई है। उस स्थिति विशेष में उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करने पर बगैर मुकदमा (ट्रायल) चले अभियोजनकर्ता बंगाल पुलिस की कार्यवाही स्वतः सही सिद्ध हो गई मानी जावेगी और अभियुक्त भाजपा युवा मोर्चा नेत्री प्रियका शर्मा आरोपी न रहकर मांफी मांगने के कारण सजायाफ्ता होकर अपराधी बन जावेगीं। तथापि प्रियंका शर्मा ने जमानत पर छूटते ही कहा कि उनसे माफीनामे पर जबरदस्ती हस्ताक्षर कराए गए हैं, और वे माफी नहीं मांगेगी, वरण मुकदमा लड़ेगीं। उच्चतम न्यायालय के इतिहास में आपराधिक न्यायशास्त्र का यह एक अनोखा विलक्षण उदाहरण बनने जा रहा हैं।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना एवं न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी का यह बड़ा कथन कि आरोपी सामान्य व्यक्ति नहीं है, वह राजनैतिक कार्यकर्ता है। इसीलिए दूसरे पक्ष को आपत्ति हुई है, न्यायतंत्र में समानता के सिद्धांत का उल्लघंन है/उसका विरोधी है। न्यायमूर्ति का यह कथन कि यह सामान्य व्यक्ति से हट कर मामला है, इसलिये हमने यह शर्त लगाई है, क्योंकि अभिव्यक्ति की आजादी तभी तक है जब तक इससे अन्य किसी को कोई परेशानी नहीं हो और उसकी भावना को ठेस न पहुचंती हो। उच्चतम न्यायालय ने इस बात का कोई संज्ञान नहीं लिया कि उक्त ‘‘फोटो’’ को अन्य व्यक्तियों ने भी शेयर किया है। क्या उनके विरूद्ध भी कार्यवाही की जायेगी? क्या उन्हे भी माफी मांगनी चाहिए? इत्यादि-इत्यादि। उच्चतम न्यायालय के उक्त आदेश से ऐसा भाषित होता है कि पूर्व में स्वयं उसके द्वारा हुई मींमासा में सीबीआई के संबंध में जो कथन किया गया था (पिंजरे में तोता) या संविधान और स्वयं के द्वारा बांधी गई न्यायिक सीमा से बाहर आकर स्वतंत्रता होने हेतु की जाने वाली छटपटाहट है, जो परिणाम में स्वयं दूसरे की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा रही है। इस तरह के आदेश लिखित कानून व संवैधानिक सीमा के बाहर ही संभव है। ऐसी स्थिति से बचा जाना चाहिये।