2019 के आम चुनावी मुद्दे, क्या ‘‘स्थापित चुनावी मुद्दों से’’ हटकर होगें……

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राजीव खण्डेलवाल

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् वर्ष 2019 में यह देश का 17 वाँ आम चुनाव हो रहा है। प्रारंभ में स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग लेने वाली पार्टी सत्य से परे एक मात्र कांग्रेस ही मानी जाती रही। वर्ष 1952 के प्रथम आम चुनाव से वर्ष 1962 तक के हुये आम चुनावों में विकल्प की राजनीति के न रहते मुद्दों को विवादित किये बिना कांग्रेस ही चुनाव जीतती रही। आयाराम-गयाराम की राजनीति के चलते देश की राजनीति में विरोधी दलों के अस्तित्व को वर्ष 1967 में प्रथम बार एक सुदृढ़ विपक्ष के रूप में स्वीकार किया गया। वर्ष 1971 में पहली बार समय से पूर्व कराये गये मध्यावति चुनाव में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओं का नारा देकर कांग्रेस को बड़ी सफलता दिलाई। वर्ष 1974 में जेपी आंदोलन के चलते (पूरे देश में इंदिरा गांधी के विरोध की लहर होने के कारण उत्पन्न परिस्थितियों से निपटले के लिये विरोधी दलों के दमन के उद्देश से, निरंकुशता व तानाशाही स्थिति के चलते इंदिरा गांधी ने देश में (पहली व आखरी बार) आपातकाल लागू कर लोकतंत्र की हृदय गति को अत्यंत बीमार कर लगभग मरणासन स्थिति में ला दिया था। इसलिए वर्ष 1977 का आम चुनाव आपातकाल के कारण स्थगित (सस्पेड़) ‘‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूलभूत संवैधानिक अधिकार’’ के मुख्य मुद्दे को लेकर लोकतंत्र बचाओं का नारा देकर लड़ा गया। ऐसी विषम स्थिति में वर्ष 1977 के चुनाव में स्वतंत्र भारत के अब तक के इतिहास मंे कांग्रेस की इस बुरी तरह से ऐतिहासिक हार हुई जिसमें स्वयं इंदिरा गांधी अपनी परमपरागत रायबरेली सीट से राजनारायण से चुनाव हार गई। वर्ष 1977 में तब मोरारजी भाई के नेतृत्व में प्रथम बार जनता पार्टी की गैर कांग्रेसी सरकार बनी।
वर्ष 1980 में हुये मध्यावति चुनाव में कम्युनिष्टों को छोड़कर शेष लगभग सभी विपक्षी दलों को मिलाकर बनी जनता पार्टी से तीन साल में ही जनता का मोह भंग हो गया। वर्ष 1980 में हुये मध्यावति चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी हो गई। लेकिन वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की दर्दनाक विश्वास-घाति हत्या के कारण उत्पन्न सहानुभूति लहर की सुनामी के बाद हुए चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक का अधिकतम ऐतिहासिक बहुमत प्राप्त हुआ। लेकिन यह बहुमत भी अगले आम चुनाव में धराशाई हो गया व वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल को बहुमत मिला। उसके बाद से लोकसभा के हुये मध्यावधि अथवा आम चुनाव सामान्यतया मुख्य रूप से एंटी इनकंबेसी (विरोधी लहर) के आधार पर होते रहे है। लेकिन इन सभी चुनावों में कभी भी व्यक्तिवाद (चेहरे) को प्रमुखता नहीं मिली। यद्यपि भाजपा के अटल बिहारी बाजपयी एक बड़ा चेहरा रहे जिनको आगे कर ‘‘अबकी बारी अटल बिहारी’’ के नारों के साथ अटल जी के नाम पर वोट मांगे गए थे। बावजूद इसके लालकृष्ण आडवानी के व्यक्तित्व के कारण ‘‘पार्टी गौण नहीं हो पाई’’और भाजपा ने संयुक्त रूप से ‘‘पार्टी व अटल जी’’ के नाम पर चुनाव लड़ा।
पहली बार वर्ष 2014 के आम चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में उतारा तो बहुत ही कम समय में उन्होेने अपने आपको पार्टी का एक सर्वमान्य चेहरा बना कर जनता के बीच स्वयं को स्वीकृत लोकप्रिय चर्चित चेहरा में स्थापित किया। भाजपा को स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ और मोदी अटलजी (बीमार) के रहते हुये भारतीय राजनीति में एक सशक्त व सर्वमान्य व्यक्तित्व वाले चेहरा बन कर उभर गए।
विचारणीय यह है कि वर्ष 2019 का चुनाव पिछले चुनावों के संदर्भ में किस हद तक अलग पहचान लिये हुये है अथवा पिछले चुनावी मुद्दों का सम्मिश्रण मात्र है? आज तक जब आधे से अधिक लोकसभा सीटों में चुनाव संपन्न हो चुके है तब राजनैतिक पंडितो के बीच यह गहन चर्चा का विषय बन रहा है कि इस चुनाव में प्रमुख मुद्दे क्या है? व परिणाम क्या आयेंगे? क्या मोदी की फिर से पहले से ज्यादा ऐतिहासिक जीत होगी या विरोधी दलों की सरकार बन जायेगी इन चुनावी विश्लेषणों में जो एक बड़ी बात उभर कर सामने आ रही हैं वह यह कि भाजपा चुनाव को मुद्दांे के बजाए पूर्ण रूप से नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व पर केन्द्रित चुनाव कर केन्द्रित करने में सफल दिख रही है। जबकि एक ओर कांग्रेस अपने नेता राहुल गांधी को केन्द्रित कर जनता के बीच जनता के व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करने में असफल रही है। लेकिन वहीं दूसरी ओर वह ‘‘न्याय’’ बेरोजगारी सहित कुछ ज्वलंत मुद्दों को जनता के बीच ले जाने में सफल होती सी दिख रही है।
लेकिन एक बात स्पष्ट है ऐसे सामान्य जन भी जो मोदी के पिछले किये गये चुनावी वायदों की पूर्ति से संतुष्ट नहीं हो पा रहे है, वे भी मोदी के प्रशंसक न होने के बावजूद, सामान्य रूप से चर्चा कर अपना मत देने के, बजाए वह यही कहता हुआ दिख रहा है कि वोट तो मोदी को ही देना हैं। क्योकि जब वह कुछ प्रमुख मुद्दों सहित स्थानीय मुद्दों व उम्मीदवार के मुद्दों पर मोदी को वोट न देने की सोचता है तो उसके सामने चेहरा राहुल गांधी का आ जाता है और तत्समय ही वह अनिच्छा व मजबूरी में मोदी को वोट देने की बात कहने लगता है। भाजपा को इस बात के लिये बधाई दी जानी चाहिए कि उसने चुनाव को मुद्दों से हटाकर मोदी विरूद्ध विपक्ष के बीच कर दिया है, जैसा कि एक जमाने में इंदिरा गांधी विरूद्ध विपक्ष था। मोदी समर्थक निश्चित रूप से राष्ट्रवाद संस्कृतिवाद के मद्दे पर लौहरूष के रूप में मोदी को पसंद कर रहे है। इसलिए यह चुनाव इस दृष्टि से जहां जातिगत व धार्मिक आधार में जकड़ी हुई है। कुछ क्षेत्रों को छोड़कर देश का आम नागरिक सामान्य रूप से यदि मोदी का सशक्त विकल्प न होने की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वोट करे तो निश्चित रूप से मोदी की लहर सुनामी परिलक्षित होकर भाजपा 400 से अधिक सीटे पार कर जायेगी। अन्यथा राष्ट्रीय मुद्दों को महत्व न देते हुये स्थानीय आधार पर जातिवाद असहिष्णुता सहित उम्मीदवारों की गुणवक्ता को प्राथमिकता व महत्व देते हुये यदि जनता ने वोट दिया तो निश्चित रूप से ऐसे परिणाम भाजपा को 200 के भीतर सीमित कर सकते हैं। यह चुनाव पार्टियों की विचार धाराओं से बाहर जाकर मोदी और मोदी विरोध पर केन्द्रित हो गया है। स्वतंत्र भारत लोकतंत्र के लिए क्या यह सही है, यह भी एक बड़ा प्रश्न है? लोकतंत्र द्वारा प्रदत्त संविधान में प्रधानमंत्री का चुनाव चुने हुये संासद करते है। लेकिन वर्तमान चुनाव इस संवैधानिक व्यवस्था को उखाड़ता हुआ अमेरिकन राष्ट्रपति के चुनाव के समान मोदी के नाम पर मोदी के पक्ष व विपक्ष के बीच हो रहा है। यदि भारतीय जनता इस रूप में परिपक्व हो चुकी है तब क्या हमारे देश को भी अमेरिकन राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली नहीं अपना लेनी चाहिए? जैसा कि अमेरिका में जहां सीधे राष्ट्रपति का चुनाव जनता द्वारा होता है।

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