विश्वास और आस्था

🌄🌚🌍विश्वास बुद्धि से नीचे है; आस्था बुद्धि के पार है। विश्वास कर लेने के लिए किसी बुद्धिमत्ता की जरूरत नहीं है, मूढ़ता पर्याप्त है। लेकिन आस्था को जगाने के लिए बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत है। बुद्धि की सारी सीढ़ियों को, सरणियों को जो पार करता है, उसके ही जीवन में आस्था का प्रकाश होता है।
आस्तिक होना सत्य नहीं है। नास्तिक हुए बिना कोई कभी आस्तिक हुआ ही नहीं, जो हुआ हो तो उसकी आस्तिकता सदा कच्ची रहेगी। वह बिना पका घड़ा है। धोखे में मत आ जाना। उसमें पानी भर कर मत ले आना। नहीं तो घर आते—आते न तो घड़ा रहेगा न पानी रहेगा।
आग से गुजरना जरूरी है घड़े के पकने के लिए।
इस जगत में जो परम आस्तिक हुए हैं, वे परम नास्तिकता की अग्नि से गुजरे हैं। और यह ठीक भी मालूम पड़ता है, क्योंकि जिसे ‘नहीं’ कहना ही न आया, उसकी ‘ही’ में कितना बल होगा? उसकी ‘ही’ तो नपुंसक की ‘ही’ होगी। उसकी नपुंसकता ही उसका विश्वास बनेगी। उसकी कमजोरी, उसकी दीनता ही उसका विश्वास बनेगी।
और आस्था तो व्यक्ति को बना देती है सम्राट! आस्था तो व्यक्ति को बना देती है विराट! आस्था तो देती है विभुता, प्रभुता!
आस्था से तो साम्राज्य फैलता ही चला जाता है—ऐसा साम्राज्य जिसमें सूर्य का कभी कोई अस्त नहीं होता; क्योंकि वहां अंधकार नहीं है, प्रकाश ही प्रकाश है।

💚ओशो❤️
अष्‍टावक्र महागीता–प्रवचन–28
बोध से जीयो—सिद्धांत से नहीं
प्रवचन—तैहरवां

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