चेतना एक दर्पण

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🌄🌚🌍कृष्ण ने दूसरा एक प्रतीक लिया है, जैसे दर्पण पर धूल जम जाए, दर्पण पर मल जम जाए। दर्पण है, धूल जम गई है। धूल जमने से दर्पण जरा भी नहीं बिगड़ता है, जरा भी नहीं। दर्पण का कुछ भी नहीं बिगड़ता। और दर्पण इंचभर भी कम दर्पण नहीं होता है धूल के जमने से, दि मिरर रिमेंस दि मिरर; कोई फर्क नहीं पड़ता। धूल कितनी ही पर्त-पर्त जम जाए कि दर्पण बिलकुल खो जाए, तो भी दर्पण नहीं खोता। उसकी मिरर-लाइक क्वालिटी पूरी की पूरी बनी रहती है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। धूल के पहाड़ जमा दें दर्पण के ऊपर, छोटे-से दर्पण पर एवरेस्ट रख दें धूल का, तो भी दर्पण का जो दर्पणपन है, मिरर-लाइक जो उसका गुण है, वह नहीं खोता। वह अपनी जगह है। और जब भी धूल हट जाएगी, दर्पण दर्पण है। और जब धूल थी दर्पण पर, तब भी दर्पण दर्पण था, कुछ खोया नहीं था। इसलिए दूसरा प्रतीक भी कृष्ण का बहुत कीमती है। वे कहते हैं, जैसे धूल जम जाती है दर्पण पर, ऐसे ही वासना जम जाती है आदमी की चेतना पर।

चेतना को दर्पण कहना बहुत सार्थक है। चेतना है ही दर्पण। लेकिन हमारे पास चेतना दर्पण की तरह काम नहीं करती। धूल बहुत है। कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अपनी ही शक्ल नहीं दिखाई पड़ती अपनी ही चेतना में, तो और क्या दिखाई पड़ेगा! कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अंधे की तरह टटोलकर चलना पड़ता है। वह दर्पण, जिसमें सत्य दिखाई पड़ सकता है, जिसमें परमात्मा दिखाई पड़ सकता है, जिसमें स्वयं की झलक का प्रतिबिंब बन जाता, कुछ नहीं दिखाई पड़ता, सिर्फ धूल ही धूल है। और हम उस धूल को बढ़ाए चले जाते हैं। धीरे-धीरे हम बिलकुल अंधे हो जाते हैं, एक स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस।

एक अंधापन तो आंख का है। जरूरी नहीं कि आंख का अंधा आदमी भीतर से अंधा हो। जरूरी नहीं कि आंख का ठीक आदमी भीतर से अंधा न हो। एक और अंधापन भी है, जो भीतर के दर्पण पर धूल के जम जाने से पैदा हो जाता है। हम तो दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। एक तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे भीतर कोई दर्पण है, जिसमें सत्य का प्रतिफलन हो सके! दर्पण का पता कब चलता है? जब दर्पण रिफ्लेक्ट करता है, तभी पता चलता है। अगर आपके पास दर्पण है, उसमें तस्वीर नहीं बनती, प्रतिबिंब नहीं बनता, तो उसे कौन दर्पण कहेगा?

आपने कभी खयाल किया कि आपके भीतर सत्य का आज तक कोई प्रतिबिंब नहीं बना! जरूर कहीं न कहीं आपके भीतर दर्पण जैसी चीज खो गई है। वे जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, वे तो कहते हैं कि दिल के आईने में है तस्वीरे-यार, वह तो यहां हृदय के दर्पण में उस प्रेमी की तस्वीर है; जब जरा गरदन झुकाई देख ली। बाकी हम कितनी ही गरदन झुकाएं, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अपनी गरदन भी नहीं दिखाई पड़ती, तस्वीरे-यार तो बहुत मुश्किल है। उस प्रेमी की तस्वीर दिखाई पड़नी तो बहुत मुश्किल है। धूल है।

धूल क्यों कहते हैं? धुआं क्यों कहते हैं, मैंने कहा। धूल क्यों कहते हैं? और कृष्ण जैसा आदमी जब एक भी शब्द का प्रयोग करता है, तो यों ही नहीं करता। कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक होते हैं; एक-एक शब्द बड़ी मुश्किल से उपयोग करते हैं।

जैसे टेलीग्राफ आफिस आप चले जाते हैं, तो एक-एक शब्द को काटते हैं कि कहीं ज्यादा न हो जाए, ज्यादा दाम न लग जाएं। आठ अक्षर, पहले दस, अब आठ से ही काम चलाना पड़ता है; आठ में ही काम हो जाता है। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि आठ सौ शब्दों की चिट्ठी जो काम नहीं करती, वह आठ अक्षर का तार काम कर जाता है। असल में जितने बेकार शब्द अलग हो जाते हैं, उतना ही इंटेंस, उतना ही गहरा भाव प्रकट हो जाता है।

कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक हैं, एक भी शब्द का ऐसे ही उपयोग नहीं कर लेते। जब वे कहते हैं धूल की भांति वासना को, तो कुछ बात है। उन्होंने तो ठीक शब्द मल प्रयोग किया है। मल और भी, धूल से भी कठिन शब्द है। मल में गंदी धूल का भाव है, सिर्फ धूल का नहीं। गंदगी से भर गया। धूल ही नहीं सिर्फ, गंदगी भी।

वासना में गंदगी क्या है? दुर्गंध क्या है? बहुत दुर्गंध है। और वह दुर्गंध इस बात से आती है कि एक तो वासना कभी भी दूसरे का गुलाम हुए बिना पूरी नहीं होती और जीवन में सारी दुर्गंध परतंत्रता से आती है। जीवन की सारी दुर्गंध परतंत्रता से आती है और जिंदगी की सारी सुगंध स्वतंत्रता से आती है। जितना स्वतंत्र मन, उतना ही सुवास से भरा होता है। और जितना परतंत्र मन, उतनी दुर्गंध से भर जाता है। और वासना परतंत्र बनाती है।

अगर आप एक स्त्री पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। अगर आप एक पुरुष पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। अगर आप धन के दीवाने हैं, तो धन की गुलामी आ जाएगी। अगर आप पद के दीवाने हैं, तो जाकर दिल्ली में देखें! एक दफे दिल्ली में सबको पकड़ लिया जाए और एक पागलखाना बना दिया जाए, तो मुल्क बहुत शांति में हो जाए। अलग-अलग पागलखाने खोलने की जरूरत नहीं, पूरी दिल्ली घेरकर पागलखाना बना देना चाहिए। या पार्लियामेंट को ही पकड़ लिया जाए, तो भी काफी है। कुर्सी! तो आदमी ऐसा गुलाम हो जाता है, ऐसा गिड़गिड़ाता है, ऐसी लार टपकाता है, ऐसे हाथ जोड़ता है, ऐसे पैर पड़ता है, और क्या-क्या नहीं करता–वह सब करने को राजी हो जाता है। एक गुलामी है, एक दासता है।

जहां भी वासना है, वहां गुलामी होगी। जो पैसे का पागल है, उसको देखा है आपने कि रुपए को कैसा, कैसा मोहित, कैसा मंत्रमुग्ध देखता है! रात सपने में भी गिनता रहता है। पैसा छिन जाए, तो उसके प्राण चले जाएं। उसका प्राण पैसे में होता है। पैसा बच जाए, तो उसकी आत्मा बच जाती है। वासना दुर्गंध लाती है, क्योंकि वासना परतंत्रता लाती है। और इसलिए वासना से भरा हुआ आदमी कभी सुगंधित नहीं होता। उसके चारों तरफ वह सुगंध नहीं दिखाई पड़ती, जो किसी महावीर, किसी बुद्ध, किसी कृष्ण के आस-पास दिखाई पड़ती है।

और बड़े मजे की बात है कि वासना तृप्त न हो, तो भी चित्त पीड़ित और परेशान होता है; और जो चाहा था वह मिल जाए, तो भी चित्त फ्रस्ट्रेट होता है, तो भी पीछे विषाद छूट जाता है। कामवासना तृप्त न हो, तो मन कामवासना के चित्रों की दुर्गंध से भर जाता है। और कामवासना तृप्त होने का मौका आ जाए, तो पीछे सिवाय हारे हुए, दुर्गंध से पराजित व्यक्तित्व के कुछ भी नहीं छूटता। दोनों ही स्थितियों में चेतना धूमिल होती है और चेतना पर गंदगी की पर्त जम जाती है।

लेकिन गंदगी की पर्त पता नहीं चलती, क्योंकि धीरे-धीरे हम गंदगी के आदी हो जाते हैं। दुर्गंध मालूम नहीं पड़ती! नासापुट राजी हो जाते हैं, कंडीशनिंग हो जाती है। तो ऐसा भी हो सकता है कि हमें दुर्गंध नहीं, सुगंध मालूम पड़ने लगे। ऐसा भी हो जाता है। ऐसा भी हो जाता है कि जो दुर्गंध निरंतर हम उसके आदी हो गए हैं, कंडीशनिंग हो गई है, तो हमें लगता है कि बड़ी सुगंध आ रही है। ऐसा ही हो भी गया है। और जिस दिन दुर्गंध सुगंध मालूम होने लगती है, उस दिन तो जैसे फिर छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस आदमी को कारागृह निवास मालूम पड़ने लगे, घर मालूम पड़ने लगे, फिर तो छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस आदमी को सूली सिंहासन मालूम पड़ने लगे, आप उसे उतारना भी चाहें सूली से, तो वह नाराज हो कि भाई हम सिंहासन पर बैठे हैं, आप हमें उतारने की बात करते हैं! तुम भी आ जाओ।

तो अगर हम जीसस पर, कृष्ण और क्राइस्ट पर, और बुद्ध और मोहम्मद पर अगर नाराज हो जाते हैं, तो नाराज होने का कारण है। हम अपनी दुर्गंध में बड़े मस्त हैं, तुम नाहक हमें बेचैन करते हो, डिस्टर्ब करते हो। हम बड़े मजे में हैं। गोबर का कीड़ा है, वह गोबर में ही मजे में है। आप उसे गोबर से हटाएं, तो वह बड़ी नाराजगी से फिर गोबर की तरफ चला जाता है। उसके लिए गोबर नहीं है, उसके लिए जीवन है!

खयाल शायद हमें न आए कि जहां हम जी रहे हैं, वह दुर्गंध है। लेकिन दुर्गंध तो है ही, चाहे हम कितने ही कंडीशंड हो जाएं। फिर हम कैसे पहचानें कि वह दुर्गंध है? हम एक ही बात पहचान सकते हैं, जिससे दुख मिलता हो, हम उसे पहचान सकते हैं। अगर सुगंध है वासना, तो दुख नहीं मिलना चाहिए। लेकिन दुख मिलता है, दुख ही दुख मिलता है, फिर भी हम कहे चले जाते हैं, सुगंध।

कृष्ण कहते हैं, दुर्गंधयुक्त मल से ढंक जाए जैसे दर्पण। दर्पण कहते हैं।

दर्पण के साथ एक और बात समझ लेनी जरूरी है। दर्पण पर, आपने कभी खयाल किया कि दर्पण के सामने आइए, तो आपकी तस्वीर बन जाती है; और हट जाइए, तो तस्वीर मिट जाती है। यह दर्पण की खूबी है। यही उसकी क्वालिटी है, यही उसका गुण है। फोटो कैमरे के भीतर भी फिल्म होती है। वह उस पर भी तस्वीर बनती है, लेकिन मिटती नहीं; बन गई, तो बन गई। एक्सपोजर हो गया, तो हो गया। एक दफे बनती है, फिर तस्वीर को पकड़ लेती है कैमरे की फिल्म, फिर छोड़ती नहीं।

दर्पण जैसा कहने का कारण है। सिर्फ जो व्यक्ति धुएं से और दुर्गंधयुक्त मल से मुक्त होता है और जिसका चित्त शुद्ध दर्पण हो जाता है, उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है–उसके सामने जो आता है, उसकी तस्वीर बन जाती है; जो हट जाता है, दर्पण कोरा और खाली और मुक्त हो जाता है। मित्र आया, तो खुशी; और चला गया, तो भूल गए। परिवार के लोग रहे, तो आनंद; नहीं रहे, तो बात समाप्त–दर्पण जैसा। फिर कोई चीज पकड़ती नहीं, एक्सपोजर होता ही नहीं। चीजें आती हैं, चली जाती हैं, और दर्पण अपनी शुद्धता में जीता है।

दर्पण को अशुद्ध नहीं किया जा सकता। फोटो के कैमरे की जो फिल्म है, उसको अशुद्ध किया जा सकता है, वह अशुद्ध होने के लिए ही है। वही उसकी खूबी है कि वह फौरन तस्वीर को पकड़ लेती है और बेकार हो जाती है। दर्पण बेकार नहीं होता। लेकिन हम जिस चित्त से जीते हैं, उसमें हमारी हालत दर्पण जैसी कम और फोटो की फिल्म जैसी ज्यादा है। जो भी पकड़ जाता है, वह पकड़ जाता है, फिर वह छूटता नहीं। एक्सपोजर हो जाता है, छूटता ही नहीं। कल किसी ने गाली दी थी, वह अभी तक नहीं छूटी; चौबीस घंटे बीत गए, वह गूंज रही है, वह चल रही है। देने वाला हो सकता है, भूल गया हो; देने वाला हो सकता है, अब माफी मांग रहा हो मन में; देने वाला हो सकता है, अब हो ही न इस दुनिया में–लेकिन वह गाली गूंजती है। हो सकता है वह आज गूंजे, कल गूंजे; हो सकता है कब्र में आप उसे अपने साथ ले जाएं और वह गूंजती ही रहे। एक्सपोजर हो गया, दर्पण जैसा नहीं रहा आपका चित्त।

एक सुबह बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया और दूसरे दिन माफी मांगने आया। तो बुद्ध ने कहा, पागल, गंगा का बहुत पानी बह चुका है। कहां की बातें कर रहा है! इतिहासों को मत उखाड़, गड़े मुरदों को मत उखाड़; बात खत्म हो गई। अब न तो मैं वह हूं, जिस पर तू थूक गया था; न अब तू वह है, जो थूक गया था; न अब वह सूरज है, न वह आकाश है, न जमीन है; सब बदल चुका। चौबीस घंटे में गंगा बहुत बह गई। तू किससे माफी मांगता है! लेकिन वह कहने लगा, नहीं, मुझे माफ कर दें। बुद्ध ने कहा, तूने थूका ही नहीं। मालूम होता है, तू जो थूक गया था, चौबीस घंटे उसको दोहराता भी रहा है, उसकी जुगाली करता रहा है।

हम सब ऐसे ही जीते हैं। यहां कोई हम में दर्पण जैसा नहीं है। दर्पण जैसा व्यक्ति ही अनासक्त हो सकता है, क्योंकि तब चीजें आती हैं और चली जाती हैं।

वही कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू दर्पण जैसे ज्ञान को उपलब्ध हो जा। हटा धूल को, जिस धूल के कारण चित्र पकड़ जाते हैं। हटा धुएं को, जिस धुएं के कारण तुझे दिखाई नहीं पड़ता कि तेरे भीतर जो ज्योति है ज्ञान की, वह क्या है। अपने दर्पण को उसकी पूरी शुद्धता में, पूरी प्योरिटी में ले आ, ताकि चीजें आएं और मिटें और जाएं और तेरे ऊपर कोई प्रभाव न छूट जाए, कोई इंप्रेशन, कोई प्रभाव तेरे ऊपर पकड़ न जाए, तू खाली…।

कबीर ने कहा न, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, खूब जतन से ओढ़ी कबीरा; बहुत जतन से ओढ़ी चादर और फिर ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं। जरा भी दाग नहीं लगाया। दर्पण जैसी हो चादर, तभी हो सकता है ऐसा। अगर चादर दर्पण जैसी न हो, तो दाग लग ही जाएगा। जिस चादर की बात कबीर कह रहे हैं, वह कृष्ण के दर्पण की ही बात है। अगर चित्त दर्पण जैसा है, तो कितना ही ओढ़े, कोई दाग नहीं लगता। दर्पण पर दाग लगता ही नहीं। दर्पण कुछ पकड़ता ही नहीं। सब चीजें आती हैं और चली जाती हैं, और दर्पण अपने खालीपन में, अपनी शून्यता में, अपनी निर्मलता में, अपनी शुद्धता में रह जाता है।

लेकिन शुद्धता दर्पण की तो तब हो न, जब उसके ऊपर धूल अशुद्धि की न जमे। दर्पण शुद्ध तो तब हो न, जब मैं स्वयं रहूं, मेरे ऊपर दूसरे न जम जाएं। दर्पण तो शुद्ध तब हो न, जब मैं जो हूं, वही रहूं; उसकी आकांक्षा न करूं, जो मैं नहीं हूं। दर्पण तो शुद्ध तभी हो सकता है न, जब वर्तमान का क्षण पर्याप्त हो और जब भविष्य की कामनाएं न पकड़ें और अतीत की स्मृतियां न पकड़ें, तभी मन का दर्पण शुद्ध हो सकता है।

ऐसे शुद्ध दर्पण को कृष्ण कहते हैं, ज्ञान। और ऐसा ज्ञान मुक्ति है।

आचार्य श्री रजनीश 💜ओशो💚
गीता दर्शन-अ.3 वासना की धूल, चेतना का दर्पण (प्र.28)

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