अहंकारी आत्मा

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🌄🌚🌍कृष्ण पूरी गीता में अर्जुन को कह रहे हैं, तू बांस की पोंगरी हो जा। स्वर उसके बहने दे। तू यह मत सोच कि तू गा रहा है। तू बीच में मत आ। तू हट जा। तू निमित्त हो जा। वही उसकी समझ में नहीं आ रहा है।

जब ये दो बातें मैं कहता हूं कि व्यक्ति जिम्मेवार है अपने प्रत्येक कर्म के लिए, तो मेरा मतलब है, जब तक आपका अहंकार है, जब तक व्यक्ति है, तब तक आपको जिम्मेवार होना पड़ेगा। व्यर्थ ही आप जिम्मेवार हैं। ट्रेन में चढ़े हैं, गठरी सिर पर रखे हैं! कोई ट्रेन की जिम्मेवारी नहीं है। आप व्यर्थ परेशान हो रहे हैं। लेकिन जैसे ही व्यक्ति ने अपने को छोड़ा, समर्पित किया, वैसे ही व्यक्ति जिम्मेवार नहीं है, विराट ही है। और विराट की कोई जिम्मेवारी नहीं है। क्योंकि विराट किसके प्रति रिस्पांसिबल होगा? किसके प्रति जिम्मेवार होगा? किसी के प्रति नहीं! व्यक्ति को जिम्मेवार होना पड़ेगा। विराट को जिम्मेवारी का कोई सवाल नहीं है। इनमें कोई विरोध नहीं है। यह दो तलों पर चीजों को देखना है।

दो तल हैं। एक अज्ञानी का तल है, अज्ञानी के तल पर समझना पड़ेगा। एक ज्ञानी का तल है, ज्ञानी के तल पर भी समझना पड़ेगा। और बहुत बार बड़ी उलझन होती है कि अज्ञानी होता तो अज्ञानी के तल पर है और ज्ञानी के तल की बातें करने लगता है; तब बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है। ऐसा रोज होता है। हमारे देश में तो जरूर हुआ है। क्योंकि इस देश में ज्ञान की इतनी बातें थीं कि अज्ञानी भी उनको करना सीख गए। वे भी ज्ञान की बातें करने लगे। रहते अज्ञानी की तरह हैं, जीते अज्ञानी की तरह हैं, बोझ अज्ञानी का लिए रहते हैं। वक्त पर, मौके पर, ज्ञानी की तरह बातें करने लगते हैं।

मेरे पड़ोस में एक आदमी मर गया, तो मैं उनके घर गया। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे थे। सब समझा रहे थे कि आत्मा तो अमर है। मैंने सोचा, इस मुहल्ले में इतने ज्ञानी हैं! कहते हैं, आत्मा अमर है! रोने की क्या जरूरत है? क्यों दुख मना रहे हैं? कोई मरता तो है नहीं; शरीर ही मरता है। मैंने उनके चेहरे गौर से देख लिए कि कभी जरूरत पड़े सलाह-मशविरे की, तो उनके पास चला जाऊंगा।

फिर एक दिन पता लगा कि जो सज्जन अगुवा होकर समझाते थे, आत्मा अमर है, उनके घर कोई मर गया। तो मैं भागा हुआ पहुंचा। देखा, तो वे रो रहे हैं। मैं बहुत हैरान हुआ। फिर मैंने कहा, थोड़ी चुप्पी साधकर बैठूं। लेकिन हैरानी और बढ़ी। जिनके घर वे समझाने गए थे, वे लोग समझाने आए हुए थे। और कह रहे थे, आत्मा अमर है। काहे के लिए रो रहे हैं?

अब ये दो तल की बातें हैं। जो आत्मा को अमर जानते हैं, उनकी दुनिया बहुत अलग है। लेकिन बात उनकी चुरा ली गई है। और जो आत्मा को मरने वाला मानते हैं, जानते हैं भलीभांति कि मरेगी; मरे या न मरे, उनका जानना यही है कि मरेगी; उनके पास यह चोरी की बात है। इस बात का वहां बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाता है। ज्ञान की चर्चा लोग सुनते हैं…।

एक संन्यासी के आश्रम में मैं कुछ दिन मेहमान था। तो वहां वे रोज समझाते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। वह कभी अशुद्ध होती ही नहीं। उनके सामने मैं लोगों को बैठे देखता था। वे कहते, जी महाराज, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैंने उन लोगों से पूछा अकेले में कि तुम कहते हो, जी, बिलकुल ठीक कह रहे हैं! वे बोले कि बिलकुल ठीक बात है; आत्मा बिलकुल शुद्ध है।

लेकिन वे जो लोग उनके सामने पगड़ियां बांधकर और कहते थे, आत्मा बिलकुल शुद्ध है, वे सब तरह के चोर, सब तरह के ब्लैक मार्केटियर, सब तरह के उपद्रवों में सम्मिलित थे। वे उसी ब्लैक मार्केट से वहां मंदिर भी खड़ा करवाते थे। और बैठकर सुनते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। सदा शुद्ध है। वह कभी पाप करती ही नहीं; कभी पाप उससे होता ही नहीं। आत्मा ने कभी कुछ किया ही नहीं। उनके मन को बड़ी राहत और कंसोलेशन मिलता होगा कि अपन ने ब्लैक मार्केट नहीं किया। अपन ने कोई चोरी नहीं की। आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, बड़े प्रसन्न घर लौटे। वे प्रसन्न घर लौट रहे हैं, वे यहां सुनने सिर्फ यही आ रहे हैं कि आत्मा शुद्ध है अर्थात अशुद्ध तो हो ही नहीं सकती। अब कितनी ही अशुद्धि करो, अशुद्ध होने का कोई डर नहीं है। यह ज्ञान की बात और अज्ञान की दुनिया में जाकर बड़ा उपद्रव खड़ा करती है।

भारत के नैतिक पतन का कारण यह है, यहां दो तल की बातें हैं। एक तल पर बहुत ऊंचा ज्ञान था और दूसरे तल पर हमारा आदमी बहुत नीचे है। उस ऊंचे तल की बातें उसके कानों में पड़ गई हैं। वह वक्त-बेवक्त उनका उपयोग करता रहता है। वह कहता है, सब संसार माया है। इधर कहता चला जाता है, सब संसार माया है, और जिस-जिस चीज को माया कहता है, उसके पीछे जी-जान लगाकर दौड़ा भी चला जाता है! ये दो तल।

इसलिए मैंने जो बात कही, वह दो तल पर ही समझ लेनी उचित है। जब तक आपको पता है कि आप हो, तब तक समझना कि सब जिम्मेवारी आपकी है। तब तक ऐसा मत करना कि आप भी बने रहो और जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़ दो। ऐसा नहीं चलेगा। अगर जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़नी हो, तो आपको भी अपने को परमात्मा के चरणों में छोड़ देना पड़ेगा। वह अनिवार्य शर्त है। और जब तक आप अपने मैं को न छोड़ पाओ, उसके द्वार पर, तब तक सारी जिम्मेवारी का बोझ अपने सिर पर रखना। वह ईमानदारी है, सिंसियरिटी है। ठीक है फिर। पाप किया है, पुण्य किया है, मैं जिम्मेवार हूं; क्योंकि जो भी किया है, वह मैंने किया है।

और अगर ऐसा लगे कि नहीं, सब जिम्मेवारी विराट की है, तो फिर इस मैं को उसके चरणों में रख आना। जिस दिन मैं को उसके चरणों में रख दो, और जिस दिन यह हिम्मत आ जाए कहने की कि मैंने कुछ भी नहीं किया, सब उसने कराया है। वही है, मैं नहीं हूं। उसका ही फैला हुआ हाथ हूं। फिर उस दिन से आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं है।

लेकिन बड़े मजे की बात है कि उस दिन से आपके जीवन से बुरा एकदम विलीन हो जाएगा। क्योंकि बुरा घटित नहीं हो सकता बिना अहंकार के। उस दिन से आपके जीवन में शुभ के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे; सफेद फूलों से भर जाएगी जिंदगी। क्योंकि जहां अहंकार नहीं है, वहां शुभ्र फूल अपने आप खिलने शुरू हो जाते हैं।

आचार्य श्री रजनीश💜ओशो💚
गीता दर्शन-अ.4

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